Thursday, December 13, 2007

गज़ल!

कब तक खुद से दिल की बात छुपाओगी,
खुद भी तड़पोगी और हमें भी सताओगी ।

इश्क वो चिंगारी है जो बुझाने से न बुझे,
जो आग लग चुकी है, उसे कैसे बुझाओगी ।

दास्तान-ए-दिल बहुत लम्बी हो चुकी है,
यूँ ही चुप रहोगी तो कहो कैसे सुनाओगी ।

रोज़-रोज़ का मिलना बन चुका होगा आदत,
अब इस आदत को बोलो कैसे छुड़ाओगी ।

जुड़ तो चुका ही है मेरा नाम तेरे नाम के साथ,
अब इस नाम से खुद को कैसे बचाओगी ।

1 comment:

Asha Joglekar said...

बहुत खूब ! जुदाई का दर्द क्या अच्छा बयाँ किया है ।

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