बेशक मुझे तेरे ग़म मिलें, बेशक मुझे रुलाएँ,
तेरी याद ग़र सताये, तो है और मन को भाये ।
हम लाख बार चाहें, दिल को नहीं रुलाना,
कोई चोट क्यों है मारे, हमको समझ न आये ।
क्यों हो गये वो रुसवा, रही दासताँ अधूरी,
दो पल भी न हुए थे, दिल को हमें लगाये ।
दुनिया बना के तू तो, बैठा है भूले सब कुछ,
ग़र तू भी दिल लगाये, तो वो भी टूट जाये ।
फितरत नहीं है अपनी, कहें बेवफा उन्हे हम,
बस ये ही सोचते हैं, उन्हे फिर से आजमायें ।
Monday, November 12, 2007
Subscribe to:
Post Comments (Atom)

3 comments:
achhi hai . dil se likhi gai hai.
अनिल जी
बिना रदीफ़ काफ़िये का निर्वाह किए आप ने ग़ज़ल लिख डाली, वाह..वाह.
बहुत से रिवायती ग़ज़ल को पसंद करने वाले हो सकता है आप से नाराज हो जायें.
लिखते रहिये
नीरज
अब तो सोचना पड़ेगा सर की किन परिस्थितियों में यह विचार आ सकता है- फ़िर से आज़माने का
Post a Comment